PRERNADAYAK KAHANIYAN
काँच की बरनी और दो कप चाय –
एक बोध कथा
जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है ।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ..... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
सार
पो चीन के तांग राजवंश में उच्चाधिकारी और कवि था. एक दिन उसने एक पेड़ की शाखा पर बैठे बौद्ध महात्मा को धर्मोपदेश देते हुए देखा. उनके मध्य यह वार्तालाप हुआ:पो: “महात्मा, आप इस पेड़ की शाखा पर बैठकर प्रवचन क्यों दे रहे हैं? ज़रा सी भी गड़बड़ होगी और आप नीचे गिरकर घायल हो जायेंगे!”महात्मा: “मेरी चिंता करने के लिए आपका धन्यवाद, महामहिम. लेकिन आपकी स्थिति इससे भी अधिक गंभीर है. यदि मैं कोई गलती करूंगा तो मेरी ही मृत्यु होगी, लेकिन शासन के इतने ऊंचे पद पर बैठकर आप कोई गलती कर बैठेंगे तो सैंकड़ों-हजारों मनुष्यों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा”.पो: “शायद आप ठीक कहते हैं. अब मैं कुछ कहूं? यदि आप मुझे बुद्ध के धर्म का सार एक वाक्य में बता देंगे तो मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा, अन्यथा, मैं आपसे कभी मिलना नहीं चाहूँगा”.महात्मा: “यह तो बहुत सरल है! सुनिए. बुद्ध के धर्म का सार यह है, ‘बुरा न करो, अच्छा करो, और अपने मन को शुद्ध रखो’.”पो: “बस इतना ही!? यह तो एक तीन साल का बच्चा भी जानता है!”महात्मा: “आपने सही कहा. एक तीन साल के बच्चे को भी इसका ज्ञान होता है, लेकिन अस्सी साल के व्यक्ति के लिए भी इसे कर सकना कठिन है.”
जब विदेशी के अपशब्दों को मंत्री ने दुआ कहाएक विदेशी को अपराधी समझ जब राजा ने फांसी का हुक्म सुनाया तो उसने अपशब्द कहते हुए राजा के विनाश की कामना की। राजा ने अपने मंत्री से, जो कई भाषाओं का जानकार था, पूछा- यह क्या कह रहा है? मंत्री ने विदेशी की गालियां सुन ली थीं, किंतु उसने कहा - महाराज! यह आपको दुआएं देते हुए कह रहा है- आप हजार साल तक जिएं। राजा यह सुनकर बहुत खुश हुआ, लेकिन एक अन्य मंत्री ने जो पहले मंत्री से ईष्र्या रखता था, आपत्ति उठाई- महाराज! यह आपको दुआ नहीं गालियां दे रहा है।
वह दूसरा मंत्री भी बहुभाषी था। उसने पहले मंत्री की निंदा करते हुए कहा- ये मंत्री जिन्हें आप अपना विश्वासपात्र समझते हैं, असत्य बोल रहे हैं। राजा ने पहले मंत्री से बात कर सत्यता जाननी चाही, तो वह बोला- हां महाराज! यह सत्य है कि इस अपराधी ने आपको गालियां दीं और मैंने आपसे असत्य कहा। पहले मंत्री की बात सुनकर राजा ने कहा- तुमने इसे बचाने की भावना से अपने राजा से झूठ बोला।
मानव धर्म को सर्वोपरि मानकर तुमने राजधर्म को पीछे रखा। मैं तुमसे बेहद खुश हुआ। फिर राजा ने विदेशी और दूसरे मंत्री की ओर देखकर कहा- मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। निर्दोष होने के कारण ही तुम्हें इतना क्रोध आया कि तुमने राजा को गाली दी और मंत्री महोदय तुमने सच इसलिए कहा- क्योंकि तुम पहले मंत्री से ईष्र्या रखते हो। ऐसे लोग मेरे राज्य में रहने योग्य नहीं। तुम इस राज्य से चले जाओ।
वस्तुत: दूसरों की निंदा करने की प्रवृत्ति से अन्य की हानि होने के साथ-साथ स्वयं को भी नुकसान ही होता है।
जब विदेशी के अपशब्दों को मंत्री ने दुआ कहाएक विदेशी को अपराधी समझ जब राजा ने फांसी का हुक्म सुनाया तो उसने अपशब्द कहते हुए राजा के विनाश की कामना की। राजा ने अपने मंत्री से, जो कई भाषाओं का जानकार था, पूछा- यह क्या कह रहा है? मंत्री ने विदेशी की गालियां सुन ली थीं, किंतु उसने कहा - महाराज! यह आपको दुआएं देते हुए कह रहा है- आप हजार साल तक जिएं। राजा यह सुनकर बहुत खुश हुआ, लेकिन एक अन्य मंत्री ने जो पहले मंत्री से ईष्र्या रखता था, आपत्ति उठाई- महाराज! यह आपको दुआ नहीं गालियां दे रहा है।
वह दूसरा मंत्री भी बहुभाषी था। उसने पहले मंत्री की निंदा करते हुए कहा- ये मंत्री जिन्हें आप अपना विश्वासपात्र समझते हैं, असत्य बोल रहे हैं। राजा ने पहले मंत्री से बात कर सत्यता जाननी चाही, तो वह बोला- हां महाराज! यह सत्य है कि इस अपराधी ने आपको गालियां दीं और मैंने आपसे असत्य कहा। पहले मंत्री की बात सुनकर राजा ने कहा- तुमने इसे बचाने की भावना से अपने राजा से झूठ बोला।
मानव धर्म को सर्वोपरि मानकर तुमने राजधर्म को पीछे रखा। मैं तुमसे बेहद खुश हुआ। फिर राजा ने विदेशी और दूसरे मंत्री की ओर देखकर कहा- मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। निर्दोष होने के कारण ही तुम्हें इतना क्रोध आया कि तुमने राजा को गाली दी और मंत्री महोदय तुमने सच इसलिए कहा- क्योंकि तुम पहले मंत्री से ईष्र्या रखते हो। ऐसे लोग मेरे राज्य में रहने योग्य नहीं। तुम इस राज्य से चले जाओ।
वस्तुत: दूसरों की निंदा करने की प्रवृत्ति से अन्य की हानि होने के साथ-साथ स्वयं को भी नुकसान ही होता है।
सफलता का रहस्य
एक कवि किसी प्रसिद्द और सफल मूर्तिकार से मिलने गया. उसकी कला वाटिका में उपस्थित शिल्प की सराहना करते हुए उसने मूर्तिकार से पूछा, “आपकी अद्वितीय कला का रहस्य क्या है?वह कौन सा दर्शन है जो आपको ये अनूठे शिल्प और मूर्तियाँ बनाने के लिए प्रेरित करता है?”“तुम वह रहस्य जानना चाहते हो?”, मूर्तिकार ने कहा, “मैं तुम्हें वह अवश्य बताऊँगा. कुछ दिन मेरे साथ रुको”.कवि कई सप्ताह तक वहां रहकर चुपचाप सारा घरेलू काम करता रहा. वह खाना बनाता, कपड़े धोता, साफ़-सफाई करता रहा लेकिन उसने कुछ भी न कहा.एक दिन, मूर्तिकार ने कवि से कहा, “मैं तुम्हें जो कुछ भी सिखा सकता था वह तुम सीख गए हो”.“ऐसा कैसे हो सकता है?”, कवि ने अचंभे से कहा, “इतने दिनों तक मैं आपके कहने पर यहाँ रुका रहा और एक शब्द भी कहे बिना आपका सारा घरेलू काम करता रहा लेकिन मुझे आपकी कला और शिल्प के बारे में कुछ भी जानने-सीखने को नहीं मिला.”“तुमने वह सारा काम एक शब्द भी बोले बिना किया न?”, कलाकार ने कहा, “वही मेरी सफलता का रहस्य है. अब जाओ”.निराशा के बादल छंटने पर कवि को यह समझ में आ गया कि उसने वाकई अमूल्य शिक्षा पाई थी और उसने इसे अपने क्षेत्र में प्रयुक्त किया”.
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